Tuesday, February 09, 2016

मिश्रा जी

बात सवा छः बजे की है। मैं अपने एक सहपाठी के साथ, अपने डिपार्टमेंट के सीनियर फैकल्टी श्री आर के मिश्रा जी के घर आया हुआ था। मिश्रा जी कद के लंबे, वादे के पक्के, रंग के सावंले, दिल के साफ़ और जुबान के मीठे किस्म के आदमी हैं, जो वास्तविक और अवास्तविक ज्ञान के भण्डार से परिपूर्ण हैं। उनके साथ बिताए हुए दो पल दो घंटों सा ज्ञान दे जाते है और दो घंटो सा ही वक़्त भी ले जाते है। मगर नई और श्लोकयुक्त पंक्तियों का हुजूम उनके मुख से निरान्तन निकलता ही रहेगा।
कई बातों के बीच मैं उन्होंने अपनी भाभी जी को याद दिलाते हुए कहा, "जरा चाय जल्दी बना दीजियेगा।" समय साढ़े छः हो चला था। मिश्रा जी की बातो का कोई अंत नहीं था, न हमारे मन मैं था कि हम उनकी कोई बात को छोड़ दें, सो एक से दूजे, दूजे से तीसरे, और तीसरे से चौथे टॉपिक पर छलांग मारते हुए हम अपनी बातो मे व्यस्त रहे। हालाँकि हर टॉपिक के अंत मैं, मिश्रा जी जाने का एक प्रयास जरूर करते की वोह अपनी सायंकाल की आरती कर के वापस आ जाँए। मगर बातो का समां कुछ यूँ बधा था की मानो ग्रतवाकर्ष बल ही उन्हें वहां से उठने न दे रहा हो।
बातें चलती रही, और मिश्रा जी ने अपनी पतलून घुटनो तक मोड़ ली, के पैर धोए जाए और आर्ति की जाए। मगर बातें अपना दम नहीं तोड़ रही थी। वोह उठते, खड़े हो कर कुछ देर बात करते और फिर एकाएक किसी बात पर वापस आ कर बैठ जाते। फिर तो संसद सी संगीन गुफ्तगू चलती, और राजधानी से सफासट टॉपिक्स की बरसात।
"अमन जरा तुम ही आरती करदो, तुम आज दिन भर मैं अण्डे तोह नहीं खाए हो ना?" पौने सात के करीब उन्होंने अपने बेटे को यह कहा। मनो उन्हें भी समझ आ गया की बातों की चादर से निकलना भी आसान नहीं। बेटे ने तुरंत, पहले हाँ मैं, फिर ना में गर्दन हिलाई और मिश्रा जी की दोनों बातों का एक ही सिरे मैं जवाब दे दिया।  मिश्रा जी ने उसे थपथपाया और भेज दिया। बातें चलती रही।
अचानक एक फ़ोन आया और स्क्रीन मे नाम पढ़ मिश्रा जी सतर्क हो उठे। घडी की तरफ देखा, उस पर स्पष्ट पौने सात का वक़्त झलक रहा था। फ़ोन उठा कर बोले, "मैं आपको दिए हुए समय पर आप से मिलूँगा, आप वहीँ पर इंतजार कीजिये।" रायते की तरह फैला बातो का समां कुछ यु वापस बाँधा की मनो कितना मामूली सा काम था जो पिछले आधे घंटे से नहीं हो पा रहा था। मनो कोई जिद थी जो उसने अभी अभी छोड़ी हो।
बात भगवन से बडी उनके वचन की रही, जिसके वह खुद को बद्ध मानते रहे हैं। अपना किया हुआ वादा नजदीक देख वोह बिना वक़्त गवाए, एक स्प्रिंग की तरह वापस कूद खड़े हुए। मैंने बताया था ना, मिश्रा जी कद के लंबे और वादे के पक्केे किस्म के आदमी हैं।

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