Friday, January 29, 2016

वोह पैंतीस मिनट

हर बढ़ते कदम के साथ मन मैं बस एक ही बात थी। शायद एक डर था वोह, या शायद संकोच, या फिर उस अनजाने मुकाम से कुक झिझक। एक किरण ख़ुशी की भी थी, और एक खौफ उस सूनेपन का भी था जो पल भर के लिए मुझे अपनी ज़ंज़ीरो मैं जकड़ने के लिए रुका होगा। गुदगुदी के बीच, बेचैनी थी और ख़ुशी के बीच घबराहट।

गुजरते मील के पत्थर के साथ पता लगा की आखिरी दो किलोमीटर रह गए हैं, और अंदर के गणितज्ञ ने वक़्त का हिसाब देते हुए बताया की कुछ दो या तीन मिनट और बाकि थे। दिल की धड़कने तेज होने लगी और माथे पर ओस की बूंदों सा पसीना फैल गया, हाथ सुने से पड़ गए और पैर कापने लगे- मानो किसी खतरनाक जानलेवा बीमारी ने अपनी गिरफ्त मे ले लिया हो।

रुमाल से मेरा गिला माथा पोछते हुए मेरी पत्नी मुझे बोली, "इसमें डरने वाली क्या बात है, वहां सब लोग आपको सुन्ने आए होंगे।"

मैं मन ही मन बोला, पगली इसी बात का तोह डर है। वह सब मुझे सुन्ने आए होंगे, और नजाने मैं कैसे बोलुँगा।

देखा जाए तोह वास्तव में व्याकुलता इस बात से नहीं थी की मैं क्या बोलुँगा, बल्कि इस बात से थी कि लगातार दस मिनट तक कैसे बोलुँगा। पिछले एक सप्ताह से मैंने जितना भी अभ्यास किया था, वोह रटे हुए लफ्ज़ तोह कुछ तीन मिनट भी साथ नहीं दे पा रहे थे। उसके आगे कुछ जोड़ने को था भी या नहीं, येहि सोच सोच नाक और माथे पर पसीना पालती मार के बैठा हुआ था।

आखरी बाएँ मोड़ के साथ जैसे ही मैंने नजरें उठाई तोह सामने लगे बडे से बोर्ड पर मोटे लाल अक्षरों मैं लिखा हुआ था विद्यार्थी भवन। मैंन पसीने से गीली कापती हुई उंग्लियो से आमंत्रण पत्र को अलट-पलट कर उस पर भी वही नाम तलाशा। घबराहट ऐसी सर पर चढ़ी हुई थी की मैं यह तक भूल गया की यह वही विद्यालय का परिसर है जहाँ मैंने हस्ते खेलते अपने बचपन का वक़्त भी गुजारा था। पिताजी के ट्रान्सफर के वर्ष मैंने अपने दसवीं की बोर्ड परीक्षा इसी विद्यालय मैं दी थी, और अभी मैं आमंत्रण पत्र पर इसका नाम तलाश रहा हूँ।

मेरी गाड़ी के रुकते ही बच्चों का एक समूह गेंदा फूल की माला ले कर दौड़ता आया, कुछ छः सात बच्चे थे, चेहरे पर से मुस्कान छलकती हुई और आँखों से मासूमियत टिमटिमाती हुई, वोह आए और मेरे नाम के साथ ज़िंदाबाद के नारे लगाने लगे। पल भर मे मेरा डर कहीं गायब हो गया और माथा वापस सूख गया, उन बच्चों की मासूमियत मे मैं खो सा गया, उनके उस आपार प्यार से मन गदगद हो उठा।

अभी तोह मैंने गाड़ी से कदम निचे भी नहीं रखे थे, और बच्चों का यह प्यार देख मैं पहले ही निशब्द हो चुका था। आँखों से आँसु छलक ही पड़े थे की पत्नी जी ने हाथ पर हाथ रख कर धीमे से कहा, "देखो यह सब बच्चे आपसे कुछ सिखने की इच्छा ले कर आज रविवार को यहाँ आए हैं।"

यह एक पंक्ति ने मनो ऐसा विश्वास भर दिया की, सारा संकोच चुटकी भर मे रफूचक्कर हो गया। छप्पन के सीने के साथ मैं जमीन में गढ़ते हुए कदमो के साथ उन बच्चों तक पंहुचा, उनका प्यार स्वीकारा और मंच की और बड़ा। होहल्ले और अपने नाम के जयकारो के बीच, तालियों की गड़गड़ाहट के साथ जाकर मैंने मंच संभाला। कुछ बीस सेकंड बाद जब समां शांत हुआ तोह मैंने अपनी पत्नी से नजर मिलाते हुए, भाषण शुरू करने की अनुमति ली, उन्होंने पलके झपका कर और मुस्कुराकर मेरा मनोबल बढ़ाया।

अपनी रटि हुई पंक्ति से मैंने शुरुआत की, "वर्ष 2000 में मैंने भी इसी विद्यालय से अपना हाइस्कूल किया था।" बच्चों ने तालियों की गड़गड़ाहट से भवन को भर दिया। मैं बाते बताता गया और वोह ख़ुशी मैं तालियां बजाते रहे। विद्यालय के प्रांगड़ से लेकर बाजार तक की बातें हुई, आत तक कार्यरत् संगीता मैडम का भी नाम आया और प्रिंसिपल की कहानियाँ भी उठी। मेरे बचपन के नादान किस्सों पर सब हँसे भी और वैसे ही सपने होने पर वोह राजी भी हुए। जब बच्चों को ऑटोग्राफ दे कर मैं बहार निकला तोह पत्नी जी बोली, "आपने तोह कमाल ही कर दिया, पैंतीस मिनट तक नॉन-स्टॉप राजधानी जैसे चलते ही रहे।"

मैं मन ही मन यह सोच कर मुस्कुराया, की कहाँ दस मिनट बोलने के बारे मैं सोच कर पसीने छुट रहे थे और लौटा पैंतीस मिनट बड़बड़ा के।

4 comments:

  1. वाह!मजा आ गया .....

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  4. Kya baat bahut badbola nikla aapka dost.. Like u...☺

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